ओणम रांगोळी पनवेल रेल्वे स्टेशन(०९/०९/२०११)
ओणम रांगोळी पनवेल रेल्वे स्टेशन
ओणम रांगोळी पनवेल रेल्वे स्टेशन
ओणम रांगोळी पनवेल रेल्वे स्टेशन
ओनपोट्टन
इसे पुलीकलि कहते हैं (शेर नाचा)
ओणम – केरल का सबसे महत्वपूर्ण पर्व
कल पनवेल रेल्वे स्टेशन पर ओणम के अवसर पर फुलो से बनायी हुई रंगोली बनायी थी(पनवेल रेल्वे स्टेशन-09/09/2011). यही है हमारे भारत की पेहचान विविधता मे एकता. पुरानी यादे हो गयी ताजा............ अब मै जिस कालेज मे ११/१२ वी मे था, वहा "ओणम" मनाया जाता था. वैसे उस दिन हमे छुट्टी होती थी. पर अगले दिन कालेज मे फुलो से रंगोली बनाते थे. अभी उसी ओणम के बारे मे कुछ बाते मेरे केरळी दोस्तोने बताई हुई, कुछ यहा वहा पढी हुई, देखी हुई. यह ब्लॉग हिंदी मे लिखने का यही प्रयोजन है की, लिखा हुया मेरे दुसरे दोस्त भी पढ सके जो मराठी अच्छे तरह से नही पढ पाते है. जहा जहा खाने की बात होती है, वो सभी त्यौहार मुझे बहुत पसंद है. जैसे गणपती मे मोदक, ईद के दिन शीर कुर्मा, ओणम के दिन पायसम, रस्सम..............यही तो है हमारे भारत की अलग पेहचान.........हर त्यौहार अपने आप मे बहुत अलग है............लेकिन एक चीज सभी मे समान है............वो है अपनापन..............जो दुसरे देशो की संस्कृतियो मे कभी दिखाई नही देता.
अभी अभी केरल के मलायालिओं ने “ओणम” मनाया है. वास्तव में यह भी फसल के काटने के बाद अगस्त/सितम्बर में मनाया जाने वाला दस दिनों का लम्बा त्यौहार है. इस समय प्रकृति भी बड़ी कमसिन होती है. फूलों की, केरल के विभिन्न प्रकार के केलों की और पके कटहल आदि की भरमार भी होती है. ओणम की तैय्यारियाँ तो काफी पहले ही शुरू हो जाती है परन्तु उत्सव का प्रारंभ “हस्त” नक्षत्र से होता है और वास्तविक ओणम दस दिन बाद श्रवण नक्षत्र के दिन रहता है. शासन के द्वारा भी इसे एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मान्यता मिली हुई है.
मिथकों के अनुसार असुरों का एक राजा था जिसे महाबली के नाम से जानते हैं. मावेली भी कहा जाता है. कुछ लोगों में यह भ्रम है कि यह रामायण काल का बाली है. नहीं, यह महाबली (वास्तविक नाम इन्द्रसेन) प्रहलाद का पोता था और विरोचन का बेटा. अपने पितामह की तरह महाबली भी परम विष्णु भक्त था. अश्वमेघ याग आदि के जरिये उसने अपना एक साम्राज्य स्थापित कर लिया था जहाँ जनता में पूरी समानता थी. कोई जाति या धर्म भेद नहीं था. सभी संपन्न एवं सुखी थे. इसे केरल का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. आज के अमरीका की तरह लोग जानते ही नहीं थे कि गरीबी क्या चीज है. समस्या यह थी कि महाबली एक असुर था (किन की नज़रों में?) और देवलोक के राजा इंद्र महाबली के उपलब्धियों से विचलित हो गए. उन्हें उनका सिंहासन डोलता नज़र आया. वे अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे (वास्तव में यह ईर्षा थी) और दौड़े दौड़े विष्णु जी के पास गए और नमक मिर्ची लगाकर अपना दुखड़ा सुनाया. दूसरी तरफ इन्द्र की माता अदिति ने भी “पयोव्रत” द्वारा भगवान् विष्णु का आह्वान किया. यह सर्वज्ञात था कि महाबली परम दानवीर है. भगवान् विष्णु ने इंद्र पर छाए हुए संभावित संकट को दूर करने के लिए एक कार्य योजना बनायीं. उन्होंने अदिति के ही गर्भ से वामन रूप में जन्म लिया.
इस वामन अवतार का प्रयोजन मात्र इंद्र की गद्दी को सुरक्षित रखना था, सो एक बटुक के रूप में विष्णु जी नें महाबली के यहाँ दस्तक दी. (परशुराम के निर्देशानुसार कोई भी क्षत्रिय किसी ब्रह्मण को भिक्षा देने से इनकार नहीं कर सकता इसलिए यह रूप धारण करना सार्थक रहा). राजा महाबली उस समय अपने इष्ट की पूजा में तल्लीन था. जब आँखें खोलीं तो सामने एक बटुक खड़ा था. राजा ने पूछा बोलो बालक क्या चाहिए. बटुक (वामन रूप में विष्णु) ने कहा मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए. राजा महाबली को हंसी आई और कहा इसमें क्या बात है ले लो. वास्तविकता यह है कि महाबली को भी आभास हो चला था कि स्वयं उसके इष्ट देव उसे मोक्ष देने आ गए हैं. विष्णु जी ने अपना विराट रूप (त्रिविक्रम) धारण कर लिया. एक ही पग में पूरी धरती समां गयी. दूसरे में आकाश अब तीसरे पग को रखने के लिए कोई जगह शेष नहीं बची. महाबली ने नतमस्तक होते हुए अपना सर बढ़ा दिया ताकि प्रभु के चरण उसपर पड़ें. हुआ भी वैसा ही. प्रभु के चरण महाबली के शीश पर और इसके साथ ही वह पाताल लोक में पहुँच गया. विष्णु जी ने महाबली को वरदान दिया कि वह प्रति वर्ष एक दिन के लिए अपने प्रिय प्रजा से मिलने पृथ्वी लोक में आ सकेगा.
ओणम का उत्सव उसी महाबली के स्वागत में प्रति वर्ष आयोजित की जाती है जो दस दिनों तक चलती है. उत्सव त्रिक्काकरा (कोच्ची के पास) केरल के एक मात्र वामन मंदिर से प्रारंभ होती है. ऐसी मान्यता है कि महाबलि की राजधानी त्रिक्काकरा में ही थी. प्रत्येक घर के आँगन में फूलों की पंखुड़ियों से सुन्दर सुन्दर रंगोलिया (पूकलम) डाली जाती हैं. युवतियां उन रंगोलियों के चारों तरफ वृत्त बनाकर उल्लास पूर्वक नृत्य (तिरुवाथिरा कलि) करती हैं. इस पूकलम का प्रारंभिक स्वरुप पहले (अथम के दिन) तो छोटा होता है परन्तु हर रोज इसमें एक और वृत्त फूलों का बढ़ा दिया जाता है. इस तरह बढ़ते बढ़ते दसवें दिन (तिरुवोनम) यह पूकलम वृहत आकार धारण कर लेता है. इस पूकलम के बीच त्रिक्काकरप्पन (वामन अवतार में विष्णु), महाबली तथा उसके अंग रक्षकों की प्रतिष्ठा होती है जो कच्ची मिटटी से बनायीं जाती है और इसे कोई रूप न देकर केवल एक पिरामिड जैसा बनाया जाता है. ऊपर की तरफ त्रिकोण न होकर सपाट होता है. इसके लिए भी कुछ नियम हैं. ऐसे मूर्तियों की संख्या अलग अलग दिनों में अलग अलग होती है. वामन को कुछ नाटा एवं मोटा सा बनाया जाता है. इनका प्रयोग केवल एक दिन ही किया जाता है. प्रति दिन अलग से मिटटी से ऐसे विग्रह बनाये जाते हैं और उनकी विधिवत पूजा होती है. यह परंपरा अब लुप्त प्रायः है. केवल कुछ एक घरानों में निभाई जाती है. प्रति दिन भोज (सद्य) का आयोजन रहता है जिसके लिए भांति भांति के व्यंजन बनाये जाते हैं.
शहरों और ग्राम्यांचलों में मनोरंजन तथा प्रतिस्पर्धा के कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. नौका दौड़ का आयोजन भी कुछ जगहों पर होता है. मध्य प्रदेश में पान्ढुर्णा के पास दो समूहों के बीच पत्थरबाजी के बारे में (गोटमार) आपने सुना होगा, उसी की तर्ज पर ग्राम्यांचलों में एक दूसरे पर हाथ चलाने की प्रथा भी रही है जो आजकल कुछ ग्रामों जैसे पल्लसेना (पालक्काड) आदि में बची हुई है. इसे “ओणम तल्लल” के नाम से जाना जाता है. क्रिसमस में जैसे सांता क्लाउस का आगमन होता है उसी तरह महाबलि भी प्रत्येक घर दुःख सुख की खबर लेने और अपना आशीर्वाद देने अपने विचित्र वेश (“ओनपोट्टन”) में आते हैं. यह परंपरा अब केवल कुछ ग्राम्यांचलों तक सीमित हो गयी है. नगरों में चल समारोह का आयोजन होता जिसमे आकर्षक झांकियां होती हैं और चहुँ ओर उल्लास का वातावरण होता है.
कल पनवेल रेल्वे स्टेशन पर ओणम के अवसर पर फुलो से बनायी हुई रंगोली बनायी थी(पनवेल रेल्वे स्टेशन-09/09/2011). यही है हमारे भारत की पेहचान विविधता मे एकता. पुरानी यादे हो गयी ताजा............ अब मै जिस कालेज मे ११/१२ वी मे था, वहा "ओणम" मनाया जाता था. वैसे उस दिन हमे छुट्टी होती थी. पर अगले दिन कालेज मे फुलो से रंगोली बनाते थे. अभी उसी ओणम के बारे मे कुछ बाते मेरे केरळी दोस्तोने बताई हुई, कुछ यहा वहा पढी हुई, देखी हुई. यह ब्लॉग हिंदी मे लिखने का यही प्रयोजन है की, लिखा हुया मेरे दुसरे दोस्त भी पढ सके जो मराठी अच्छे तरह से नही पढ पाते है. जहा जहा खाने की बात होती है, वो सभी त्यौहार मुझे बहुत पसंद है. जैसे गणपती मे मोदक, ईद के दिन शीर कुर्मा, ओणम के दिन पायसम, रस्सम..............यही तो है हमारे भारत की अलग पेहचान.........हर त्यौहार अपने आप मे बहुत अलग है............लेकिन एक चीज सभी मे समान है............वो है अपनापन..............जो दुसरे देशो की संस्कृतियो मे कभी दिखाई नही देता.
अभी अभी केरल के मलायालिओं ने “ओणम” मनाया है. वास्तव में यह भी फसल के काटने के बाद अगस्त/सितम्बर में मनाया जाने वाला दस दिनों का लम्बा त्यौहार है. इस समय प्रकृति भी बड़ी कमसिन होती है. फूलों की, केरल के विभिन्न प्रकार के केलों की और पके कटहल आदि की भरमार भी होती है. ओणम की तैय्यारियाँ तो काफी पहले ही शुरू हो जाती है परन्तु उत्सव का प्रारंभ “हस्त” नक्षत्र से होता है और वास्तविक ओणम दस दिन बाद श्रवण नक्षत्र के दिन रहता है. शासन के द्वारा भी इसे एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मान्यता मिली हुई है.
मिथकों के अनुसार असुरों का एक राजा था जिसे महाबली के नाम से जानते हैं. मावेली भी कहा जाता है. कुछ लोगों में यह भ्रम है कि यह रामायण काल का बाली है. नहीं, यह महाबली (वास्तविक नाम इन्द्रसेन) प्रहलाद का पोता था और विरोचन का बेटा. अपने पितामह की तरह महाबली भी परम विष्णु भक्त था. अश्वमेघ याग आदि के जरिये उसने अपना एक साम्राज्य स्थापित कर लिया था जहाँ जनता में पूरी समानता थी. कोई जाति या धर्म भेद नहीं था. सभी संपन्न एवं सुखी थे. इसे केरल का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. आज के अमरीका की तरह लोग जानते ही नहीं थे कि गरीबी क्या चीज है. समस्या यह थी कि महाबली एक असुर था (किन की नज़रों में?) और देवलोक के राजा इंद्र महाबली के उपलब्धियों से विचलित हो गए. उन्हें उनका सिंहासन डोलता नज़र आया. वे अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे (वास्तव में यह ईर्षा थी) और दौड़े दौड़े विष्णु जी के पास गए और नमक मिर्ची लगाकर अपना दुखड़ा सुनाया. दूसरी तरफ इन्द्र की माता अदिति ने भी “पयोव्रत” द्वारा भगवान् विष्णु का आह्वान किया. यह सर्वज्ञात था कि महाबली परम दानवीर है. भगवान् विष्णु ने इंद्र पर छाए हुए संभावित संकट को दूर करने के लिए एक कार्य योजना बनायीं. उन्होंने अदिति के ही गर्भ से वामन रूप में जन्म लिया.
इस वामन अवतार का प्रयोजन मात्र इंद्र की गद्दी को सुरक्षित रखना था, सो एक बटुक के रूप में विष्णु जी नें महाबली के यहाँ दस्तक दी. (परशुराम के निर्देशानुसार कोई भी क्षत्रिय किसी ब्रह्मण को भिक्षा देने से इनकार नहीं कर सकता इसलिए यह रूप धारण करना सार्थक रहा). राजा महाबली उस समय अपने इष्ट की पूजा में तल्लीन था. जब आँखें खोलीं तो सामने एक बटुक खड़ा था. राजा ने पूछा बोलो बालक क्या चाहिए. बटुक (वामन रूप में विष्णु) ने कहा मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए. राजा महाबली को हंसी आई और कहा इसमें क्या बात है ले लो. वास्तविकता यह है कि महाबली को भी आभास हो चला था कि स्वयं उसके इष्ट देव उसे मोक्ष देने आ गए हैं. विष्णु जी ने अपना विराट रूप (त्रिविक्रम) धारण कर लिया. एक ही पग में पूरी धरती समां गयी. दूसरे में आकाश अब तीसरे पग को रखने के लिए कोई जगह शेष नहीं बची. महाबली ने नतमस्तक होते हुए अपना सर बढ़ा दिया ताकि प्रभु के चरण उसपर पड़ें. हुआ भी वैसा ही. प्रभु के चरण महाबली के शीश पर और इसके साथ ही वह पाताल लोक में पहुँच गया. विष्णु जी ने महाबली को वरदान दिया कि वह प्रति वर्ष एक दिन के लिए अपने प्रिय प्रजा से मिलने पृथ्वी लोक में आ सकेगा.
ओणम का उत्सव उसी महाबली के स्वागत में प्रति वर्ष आयोजित की जाती है जो दस दिनों तक चलती है. उत्सव त्रिक्काकरा (कोच्ची के पास) केरल के एक मात्र वामन मंदिर से प्रारंभ होती है. ऐसी मान्यता है कि महाबलि की राजधानी त्रिक्काकरा में ही थी. प्रत्येक घर के आँगन में फूलों की पंखुड़ियों से सुन्दर सुन्दर रंगोलिया (पूकलम) डाली जाती हैं. युवतियां उन रंगोलियों के चारों तरफ वृत्त बनाकर उल्लास पूर्वक नृत्य (तिरुवाथिरा कलि) करती हैं. इस पूकलम का प्रारंभिक स्वरुप पहले (अथम के दिन) तो छोटा होता है परन्तु हर रोज इसमें एक और वृत्त फूलों का बढ़ा दिया जाता है. इस तरह बढ़ते बढ़ते दसवें दिन (तिरुवोनम) यह पूकलम वृहत आकार धारण कर लेता है. इस पूकलम के बीच त्रिक्काकरप्पन (वामन अवतार में विष्णु), महाबली तथा उसके अंग रक्षकों की प्रतिष्ठा होती है जो कच्ची मिटटी से बनायीं जाती है और इसे कोई रूप न देकर केवल एक पिरामिड जैसा बनाया जाता है. ऊपर की तरफ त्रिकोण न होकर सपाट होता है. इसके लिए भी कुछ नियम हैं. ऐसे मूर्तियों की संख्या अलग अलग दिनों में अलग अलग होती है. वामन को कुछ नाटा एवं मोटा सा बनाया जाता है. इनका प्रयोग केवल एक दिन ही किया जाता है. प्रति दिन अलग से मिटटी से ऐसे विग्रह बनाये जाते हैं और उनकी विधिवत पूजा होती है. यह परंपरा अब लुप्त प्रायः है. केवल कुछ एक घरानों में निभाई जाती है. प्रति दिन भोज (सद्य) का आयोजन रहता है जिसके लिए भांति भांति के व्यंजन बनाये जाते हैं.
शहरों और ग्राम्यांचलों में मनोरंजन तथा प्रतिस्पर्धा के कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. नौका दौड़ का आयोजन भी कुछ जगहों पर होता है. मध्य प्रदेश में पान्ढुर्णा के पास दो समूहों के बीच पत्थरबाजी के बारे में (गोटमार) आपने सुना होगा, उसी की तर्ज पर ग्राम्यांचलों में एक दूसरे पर हाथ चलाने की प्रथा भी रही है जो आजकल कुछ ग्रामों जैसे पल्लसेना (पालक्काड) आदि में बची हुई है. इसे “ओणम तल्लल” के नाम से जाना जाता है. क्रिसमस में जैसे सांता क्लाउस का आगमन होता है उसी तरह महाबलि भी प्रत्येक घर दुःख सुख की खबर लेने और अपना आशीर्वाद देने अपने विचित्र वेश (“ओनपोट्टन”) में आते हैं. यह परंपरा अब केवल कुछ ग्राम्यांचलों तक सीमित हो गयी है. नगरों में चल समारोह का आयोजन होता जिसमे आकर्षक झांकियां होती हैं और चहुँ ओर उल्लास का वातावरण होता है.
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